Sunday 2 October 2011

साहित्य : दुनियादारी

सन्दर्भ- हिन्दी भारत पर
'हिंदी साहित्य की अजीबोगरीब दुनिया में यदि आपकी चंद सत्ता केंद्रों से नजदीकी नहीं तो आप लेखक नहीं. दिनेश कुमार की रिपोर्ट'
पर एक विचार


रिपोर्ट अच्छी है या बुरी है कहना मुश्किल है. भले ही इस रिपोर्ट से अनजानों को भी अच्छी जानकारी मिलती है. लेकिन जिन महानुभावों को साहित्य का एक विद्यार्थी बड़े आदर भाव से देखता है, उनके संबंध में इस प्रकार की बातें पढ़कर शायद अचरज में पड़ सकता है, मेरी तरह.
मुझे लगता है कि ये भी हमारी राजनेताओं की तरह बन गए हैं. अपनी आयु के अंतिम पड़ाव पर हैं मगर कुर्सी नहीं छोड़ना चाहते. अपने होने को दर्ज करने के लिए शक्ति प्रदर्शन से अच्छा तरीका और क्या हो सकता है. ये भी अपनी शक्ति दिखाते रहते हैं. अपने अनुगामियों (फालोअर्स) को लाभ पहुँचाकर.
इस तरह की बातें तो हर क्षेत्र में है. मजुरगिरी, भाईगिरी, नेतागिरी और न जाने किन-किन गिरियों में भाई-भतिजागिरी है. और, अगर लेखकगिरी और साहित्यगिरी में भी इस के पैर फैलने लगे हैं तो 'अनेकता में एकता' में विशवास करने वालों को याने कि हमें शायद अरे नहीं जरुर खुश होना चाहिए कि अब लेखक और साहित्यकार भी भाईगिरी और नेतागिरी जो आज देश की पहचान बनी हुई है, उस में शामिल हो रहे हैं.
हमें इन महानुभावों से शिक्षा ग्रहण करनी चाहिए कि कैसे साहित्य को समाज से जोड़ा जा सकता है. कहते है कि साहित्य समाज का दर्पण है और समाज साहित्य का दर्पण. इस कथन को कैसे झुठलाया जा सकता है. लगता है इन साहित्यकारों ने इस कथन को सही साबित करने की ठानी थी. इसीलिए इन्होने वही किया जो समाज में दिखाई दे रहा था. दुनियादारी की बात है भय्या सीखते-सीखते आ जाएगी.

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