Wednesday 7 September 2011

गणेश मंडप-विचार विमर्श

@ आदरणीय ऋषभदेव शर्मा जी.
प्रणाम सर.
आपका प्रश्न मुझे अच्छा लगा. आप हमेशा ही विचार-विमर्श के लिए एक मंच तैयार करते हैं, द्वार खोलते रहते हैं. जिससे विचारक को एक-एक द्वार पार करके सोपान तक पहुँचना होता है. इस यात्रा में मजेदार बात यह होती है कि आप यात्री के साथ हमेशा खड़े रहते हैं. उसे बीच में कभी नहीं छोड़ते.

इन अवसरों का भी रचनात्मक उपयोग हो सकता है यदि इनके साथ या इन कार्यकर्मों में या ऐसे कार्यक्रम रचनाशील व्यक्तियों द्वारा किए जाएँ.

मैं ने दोनों प्रकार के मंडप देखें हैं. एक-एक उदाहरण प्रस्तुत है.

१. हमारे भाई साहब के अपार्टमेन्ट में गणेश जी की स्थापना हुई और पांचवें दिन विसर्जन किया गया. अपार्टमेन्ट के सभी परिवारों ने मिलकर पाँच दिनों तक गणेश जी का पूजन किया. इस अवसर पर उनका मेल-मिलाप बढ़ा. सामान्यतः जो लोग हमेशा व्यस्त रहते हैं वे भी गणेश पूजन में शामिल हुआ करते थे. गणेश जी के पूजन और विसर्जन कार्यक्रम में सभी रिलिजन के लोग शामिल हुए. इन पांच दिनों में वहां विभिन्न सांस्कृतिक कार्यक्रमों का आयोजन भी किया गया था.

२. कुछ मंडप ऐसे भी होते हैं जो असामाजिक तथा राजनैतिक पृष्ठ भूमि वाले लोगों द्वारा लगाए जाते हैं. यहाँ गणेश पूजन की आड़ में अन्य 'धंधे' किए जाते हैं. इन लोगों को अधिक महत्त्व न देकर इनकी ताकत को कम किया जा सकता है. बशर्ते कि आम आदमी बाह्य आडम्बरों के खोखलेपन को समझे.

धन्यवाद.

1 comment:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

भाई बालाजी, आपने एक जगह के मेल मिलाप और दूसरी जगह के ‘अन्य धंधे’ का ज़िक्र किया पर अंततः गणेश जी को सड़क पर ही आना पडा। क्या हमारे देवी-देवता सडक छाप ही बने रहेंगे। क्या केवल ऐसी भीड-संयोजन से ही मेल मिलाप सम्भव है? मेल मिलाप के लिए कई अवसर हैं- जैसे किसी पर्व पर लोगों को बधाई देना, दशहरा ही ऐसा पर्व है जिसमें लोग आपस में जम्बी ले-दे कर मिलते हैं। होली पर भी रंग खेलने के बाद, स्नानादि से निवृत हो लोग मिलने जाते हैं और शरबत, भांग का दौर भी चलता है। इसमें मौज-मस्ती रहती है और बिना कान-फोडू बाजे-गाजे के॥