Tuesday 16 August 2011

चक्रव्यूह के पास

चक्रव्यूह के पास
अभिमन्यु कभी भटकता नहीं
उसे मालूम है
किस द्वार से भीतर प्रवेश करना है.

मैं क्या करूँ?
चक्रव्यूह की परिभाषा भी नहीं जानता.
संरचना कैसे जान पाऊँगा?
द्वार प्रवेश के कैसे तोड़ पाऊँगा?
शत्रु हथियार से लैस, वार करते हैं
अचूक शब्द बाण-भाले, घायल करते हैं
मैं शर्म से पानी-पानी हो जाता हूँ.

अर्जुन का वंशज
अपने शस्त्र कभी नहीं डालता
प्राण भले ही छोड़ दे
रणभूमी कभी नहीं छोड़ता.

विचार कौंधता है
मन-मस्तिष्क में
संचरित होता है
साहस-दृढ़ विश्वास
धमनियों में
प्रवेश का निर्णय ले
तोड़ हर अवरोध
उन्नति-द्वार के.











2 comments:

चंद्रमौलेश्वर प्रसाद said...

सुंदर कविता... आखिर हिम्मतवाला ही तो मोह के द्वार तोड़ सकता है॥

डॉ.बी.बालाजी said...

@ चन्द्रमौलेश्वर प्रसाद जी
धन्यवाद सर.